ऊँट के करवट लेने के दोचित्तेपन के बीच की सी
मनोस्थिति में वक़्त गुज़रता गया . सोचा किया ,मेरे भीतर तुम्हारे होने की
झिलमिल ने,तुम्हारी आँख नहीं छुई -तो किया क्या ? जनवरी की कोहरे भरी सुबह
,खिडकियों के कांच पर जमी होती है . शीशे को ऊँगली से छूते हुए ..डरता हूँ ,
कुछ लिखा ना जाए .मरियल पीली रौशनी ....बिना किसी स्निग्धता के आसपास के
मकानों को छूती है ,वे कहते हैं ,इनदिनों दिन यूँ ही शुरू हुआ करते हैं
इनदिनों मैं आकाश देखता हूँ,
स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी की तरह,
मैं हमेशा आकाश देखता आया हूँ,
उत्सुक बच्चों की तरह,
जो देखते हैं आकाश उनदिनों में भी,
जिन दिनों आकाश में पतंगे नहीं होतीं,
लाल पीले हरे रंग से बना कोई सपना,
चिड़िया की बगल में उड़ता रहता है .
मैं आकाश देखता हूँ ,और
दूर कहीं एक सोये ज्वालामुखी की भाप सी धुँध को,
मौसम और वक़्त से मार खाए,
मकानों पर उतरते ताकता हूँ,
सफेद ,नीली और स्याह चिन्दियों से बुने आकाश में,
बेहद पास के या ,
बहुत दूर चले गये चेहरे देखता हूँ ,
अस्वस्थ कंपन से मेरी उंगलियाँ,
नितान्त अस्थिरता से थामे रहती हैं बुर्श जैसा कुछ,
जमीन ओलों के मैले पानी से होती है गीली .
मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से .
(आकाश परेशान है ... मैं भी , दोनों छूते हैं एक दूसरे को आश्वस्त करते ..........कि कुछ नहीं बदला कहीं )
[ दो झूठों के बीच वार्तालाप .......भाग एक ]
इनदिनों मैं आकाश देखता हूँ,
स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी की तरह,
मैं हमेशा आकाश देखता आया हूँ,
उत्सुक बच्चों की तरह,
जो देखते हैं आकाश उनदिनों में भी,
जिन दिनों आकाश में पतंगे नहीं होतीं,
लाल पीले हरे रंग से बना कोई सपना,
चिड़िया की बगल में उड़ता रहता है .
मैं आकाश देखता हूँ ,और
दूर कहीं एक सोये ज्वालामुखी की भाप सी धुँध को,
मौसम और वक़्त से मार खाए,
मकानों पर उतरते ताकता हूँ,
सफेद ,नीली और स्याह चिन्दियों से बुने आकाश में,
बेहद पास के या ,
बहुत दूर चले गये चेहरे देखता हूँ ,
अस्वस्थ कंपन से मेरी उंगलियाँ,
नितान्त अस्थिरता से थामे रहती हैं बुर्श जैसा कुछ,
जमीन ओलों के मैले पानी से होती है गीली .
मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से .
(आकाश परेशान है ... मैं भी , दोनों छूते हैं एक दूसरे को आश्वस्त करते ..........कि कुछ नहीं बदला कहीं )
[ दो झूठों के बीच वार्तालाप .......भाग एक ]
जीवन के मर्म को व्यक्त करती रचना
ReplyDeleteगहन अनुभूति
सार्थक रचना
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
http://jyoti-khare.blogspot.in