Thursday, October 10, 2013

बस्स ! आधी रात के सिवा ,

जब भी चाहो सुन पाओगे मेरी आवाज़,

कुछ घंटे जब मुझे पढ़ाने पड़ते है,शैली ,बायरन और कीट्स ,

उन सब के बिना मैं पढ़ती और पढ़ाती हूँ,

तुम्हारी कविता .

गिरते पत्थरों वाले खंडहर में खड़ा,

मैं देखता हूँ एक पर एक रखे पत्थरों को फिसलते हुए,

बेकार बैठा एक स्लेटी कबूतर,

पंख फड़फड़ा उड़ता है इस कोने से उस कोने तक .

खुले रास्तों से भी बाहर ना जाता कबूतर,

मुझे हैरत से देख पूछता है ,"तुम यहाँ कैसे ?"

मैं उसके पंख देखता हूँ .........मुहँ से मौन हो कर .

(जो तुम नहीं तो क्या हुआ ........कबूतर जानता है मेरा सवाल )

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