Thursday, October 10, 2013

यह दिन थोड़े अजीब हैं .
इनदिनों सांझ होते ही मैं सूरज को पीठ का नाप देता हूँ,
सूरज बच्चों की अनगढ़ उँगलियों से पृथ्वी पर मेरा होना लिखता है .

यह एक बेबस विरल विरह के दिन हैं,
मेरे हथेलियाँ एक उतप्त हाथ की छुअन से भरी हैं,
एक नितांत ठंडी तरल उष्मा से भीगे हाथ से,
मैंने जलते कोयले उठाये हैं .
उँगलियों के पोरों पर उगे फफोलों को इतने तल्लीन हो मत देखो,
देर नहीं कि तुम एक तरल नदी में बह जाओ .

यह दिन अजीब हैं और रातें विचित्र,
गहरी काली रात में अनिद्रा मेरी आँखों में गर्म शहद के टपके डालती है,
कडवी रातों को मीठे सपने देते वह मेरे लिए प्रार्थना करती है,
दिन काला करके आँखें पलकों तले बने कोटरों में मृत रहना चाहती हैं,
अगली सुबह उगने तक .

यह दिन विचित्र हैं,कि
इनदिनों मकड़ियां मेरी हथेलियों के बीच बुन रहीं हैं,लिसलिसे जाल,
इनदिनों मैं डरता हूँ पानी छूते हुए,कि
सादगी से बहते पानी की घूँट कहीं नमकीन ना हो जाए .

यह विचित्र दिन हैं की मैं बैठा रहता हूँ मुट्ठियाँ भींचे,
लड़ने को तैयार बिलकुल एक मुक्केबाज़ की तरह ,
मेरे हाथ पर बच्चों की कलम से खींची गयी लकीरों के गिर्द,
जमता रहता है लहू,
हथेलियों में जमे खून में लिखा है ,
मैं जिंदा हूँ अभी .

(सांझ रात के लिए उबाल रही है शहद, मैं धो रहा हूँ आँखें )

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