Thursday, October 10, 2013

आज बचपन के क्लास रूम बहुत याद आ रहें हैं .उनसे भी अधिक काले पेंट से पुते ब्लैकबोर्ड, सफेद चाक की सिगरेट सी वह डंडी .......सबसे ज्यादा हरे कपड़े वाला वह लकड़ी का डस्टर . हिसाब (तब हम इसे गणित नहीं कहते थे ) पढ़ने वाली मास्साब बड़ी तेज़ी से ब्लैक बोर्ड को भरते जाते ....त्रिभुजों और आयतों से .सबसे पास बैठे लडके पर होता था वह बोर्ड साफ़ कर ,उसे फिर से लिखने लायक बनाना .

वर्ग ,त्रिभुजें ,आयतें और वह सब जो सलेब्स में था आपने खूब समझाया मास्टर हजारी राम जी ...........बस यह सिखाना भूल गये कि ज्यामिति और ट्रिगनोमैट्री से कहीं परे किसी दिन कोई और आकार भी उभर आता है .............गणित के सारे नियम वहां चुप हो जाते हैं .

ब्लैकबोर्ड साफ़ कर दिया गया है ....चाक के घिसने से गिरे पाउडर के सिवा कुछ नहीं है .डस्टर है .....बखूबी हरे कपड़े से झर रही है सफेदी भी .........और अब मैं वह सब लिखना चाहता हूँ जो मुझे गणित की किताब में पढ़ाया नहीं गया था .........बस इनदिनों मेरे पास चाक नहीं है .

ज़िन्दगी जीते हुए हम बहुत सी ऐसी चीज़ें यह सोच नहीं उठाते ,कि यह किस काम आएगी . मास्टर जी ........मैंने उन टुकड़ों में से एक भी उठाया होता ,जो मेरे भटके ध्यान को बोर्ड की ओर खींचने के लिए आपने मेरी ओर फेंके थे .................तो मैं यकीनन एक कविता लिख सकता था .

(आत्मनिर्वासित ,कलम उठा एक भी कविता ना लिख पाने में समर्थ एक कथित कवि का इकबालिया ब्यान )

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