Thursday, October 10, 2013

एकान्त की सी निस्पृहता से,
तुम्हारे पीछे छूटी चीज़ों को छूता मैं,
कगार पर आ गये कछुए की तरह,
हर बार वापिस लौट जाता हूँ नदी में,
मेरी हरी टोपी को कोई फर्क नहीं पड़ता,
बस,तुम्हारी आवाज़ की सीलन,
देर तक कान में बनी रहती है .
***
एक अबूझ अवसाद के तीखे किनारों पर हाथ फिराता मैं,
पाता हूँ,बाहरी भर नहीं यह,
दो ध्रुवों के बीच के अंतराल सा गहरा स्वर,
कैकयी के विलाप सा घेरता है मुझे,
तुमसे कभी बाहर निकल सकने की सोच,
शीशे के भीतर देख,
थू कह सकने सी भी सशक्त होती ,तो
घाट किनारे बैठ मैं देखता,
कितनी लम्बी हुई बरगद की दाढ़ी,
कल और आज के बीच फैली रात में .
***
पार तो नहीं,कगार पर खड़ा मैं,
आसमान चीरने जितनी व्याकुलता से बोलता हूँ ...प्रिये !
मौत के पल के आने तक की तत्परता से ,
मेरे जीवन के समूचे कंगलेपन को,
सामर्थ्य भर स्निग्धता से सोख लेतीं है
तुम्हारे करीब होने की आँख सी अनुभूति .

(आँख गढा मैं देखता हूँ तुम्हे सर से तलवों तक,पाता हूँ ,
कहीं नहीं हो तुम,उस एक हरी पत्ती के सिवा जो नहीं सूखी कभी ज्येष्ठ में,पूस में )

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