Thursday, October 10, 2013

मेरे यहाँ
आजकल सावन है
दिन में कितनी कितनी बार
बरसती हैं फुहारें
कविता की
आस-पास की सारी धरती
तृप्त है,और
उग आई है दूब उस par
हरी हरी दूर तक फैली हुई

मन बहुतो बार हुलसता है
उकसाता है
जूते उतर कर इस दूब पर चलने को
और ,मिटटी की सोंधी सोंधी
गंध ,नथुनों में भर लेन को
साथ में अनायास
ही मिलते गौरव को
और लालसा में भी होने को
किसी पगडण्डी का
पहला पथिक.

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