मेरे यहाँ
आजकल सावन है
दिन में कितनी कितनी बार
बरसती हैं फुहारें
कविता की
आस-पास की सारी धरती
तृप्त है,और
उग आई है दूब उस par
हरी हरी दूर तक फैली हुई
मन बहुतो बार हुलसता है
उकसाता है
जूते उतर कर इस दूब पर चलने को
और ,मिटटी की सोंधी सोंधी
गंध ,नथुनों में भर लेन को
साथ में अनायास
ही मिलते गौरव को
और लालसा में भी होने को
किसी पगडण्डी का
पहला पथिक.
आजकल सावन है
दिन में कितनी कितनी बार
बरसती हैं फुहारें
कविता की
आस-पास की सारी धरती
तृप्त है,और
उग आई है दूब उस par
हरी हरी दूर तक फैली हुई
मन बहुतो बार हुलसता है
उकसाता है
जूते उतर कर इस दूब पर चलने को
और ,मिटटी की सोंधी सोंधी
गंध ,नथुनों में भर लेन को
साथ में अनायास
ही मिलते गौरव को
और लालसा में भी होने को
किसी पगडण्डी का
पहला पथिक.
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